सम्पूर्ण भारतवर्ष में संस्कृत सप्ताह हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है। आर्यावर्त के विभिन्न भागों में शैक्षणिक गतिविधियाँ जैसे संस्कृत वाद-विवाद प्रतियोगिताऐं, संस्कृत गायन, संस्कृत कथा वाचन इत्यादि का आयोजन किया जा रहा हैं। इनका उद्देश्य संस्कृत सम्भाषण को बढ़ावा देना है। संस्कृत वक्ताओं की घटती संख्या को देखते हुए इस प्रयत्न को साधुवाद ।
नवीनतम जनगणना के अनुसार, भारत में संस्कृत को अपनी मातृभाषा कहने वाले केवल 25,000 लोग हैं | यह संस्कृत की चिन्ताजनक स्थिति को दर्शाता है | इस लेख में हम ज्ञान विज्ञान के प्रसार में देववाणी की ऐतिहासिक भूमिका, भारतीय और अन्य वैश्विक भाषाओं पर इसके गहन प्रभाव, इसके ह्रास के ऐतिहासिक कारण, और नवीन शताब्दी में इसे कैसे पुर्नजीवित किया जा सकता है, इनका संक्षेप में विश्लेषण करेंगे |
प्राचीन भारत में संस्कृत
संस्कृत भारत की प्राचीनतम भाषा है। कुछ राष्ट्र विध्वंसक संघटन और द्रविडवादी दल, उनके विदेशी स्वामियों के दबाव में आकर तमिल को विश्व की प्राचीनतम भाषा का दर्जा देते हैं | यह तथ्यात्मक रुप से सही नहीं है | ऋग्वेद (मानव समुदाय की प्रथम लिखित पुस्तक ) 10,000 वर्ष से भी पूर्व लिखी गयी थी । यह पूरी तरह से संस्कृत में लिखी गयी है। इसी तरह संस्कृत के आदि कवि “वाल्मीकि” द्वारा रचित रामायण भी 10,000 वर्ष से भी अधिक पुरानी है। उसके पश्चात संस्कृत में जीवन के विभिन्न विषयों पर कई ओर ग्रन्थ लिखे गए। श्री अरविन्द के अनुसार संस्कृत भाषा, मानव मस्तिष्क के द्वारा रचित प्रौढतम, परिपूर्ण ओर उत्कृष्टतम साहित्यिक उपकरण है | संस्कृत में इतिहास के रुप में रामायण और महाभारत, राज्यप्रशासन पर अर्थशास्त्र और कविता के रूप में महाकवि कालिदास द्वारा विरचित महाकाव्य उपलब्ध हैं।

संक्षेप में संस्कृत समाज के प्रत्येक वर्ग की भाषा थी | संस्कृत में अनुमानित रूप से 3 करोड से भी अधिक पांडुलिपियों का प्रकाशन हुआ है। यह ग्रीक और लैटिन में संयुक्त रूप से प्रकाशित पांडुलिपियों से 100 गुना अधिक है [यहां पढ़िए]। भारत के इस ज्ञान का प्रचार-प्रसार विश्व के अन्य भागों में भी हुआ । संस्कृत का प्रभाव इतना व्यापक था विश्व की दो प्रमुख भाषाओं के नाम संस्कृत में हैं: मेन्डरिन (चीनी राजभाषा) जो मन्त्रिन् = मन्तरिन्द का परिवर्तित रुप है | इसी प्रकार, कव (जो कि पुरानी जावा भाषा है) जो कवि = कावी का रुपान्तरण है। इस प्रकार संस्कृत प्राचीन काल से ही साहित्य, व्यापार, वाणिज्य, कूटनीति और विज्ञान की भाषा थी।
आयुर्वेद या जीवन विज्ञान पर, संस्कृत भाषा में कई किताबें लिखी गई हैं। इसी तरह, पतंजलि योग सूत्र, चेतना और प्राण पर वृहद चर्चा करता है। ये सभी ग्रन्थ संस्कृत में हैं। गणित में,अवकलन, समाकलन की खोज का श्रेय काफी हद तक दक्षिण की माधव परम्परा को जाता है। तात्कालिक यूरोपीय गणितज्ञ इसके आगे कहीं नहीं टिकते थे | बर्बर इस्लामी आक्रमणों का प्रभाव इस पर भी पडा | विजयनगर साम्राज्य के पतन के साथ ही इसने भी अपना अस्तित्व खो दिया |
इसी तरह, दर्शन में, भगवद् गीता, उपनिषदों का संदेश, आज तक लोगों को निष्काम कर्म के लिए प्रेरित करता है। मानव जीवन के हर पक्ष पर महाभारत ने अपना संदेश दिया है। यह ठीक ही कहा गया है, कि “जो कुछ भी भारत में है, वह हर जगह है, जो भारत में नहीं है, वह कहीं नहीं है” |
संक्षेप में, संस्कृत भाषा प्राचीन काल में ज्ञान-विज्ञान, के प्रचार-प्रसार का एक महत्वपूर्ण साधन थी।
संस्कृत का ह्रास कैसे हुआ:
किसी भी भाषा के उत्थान और पतन में, तात्कालिक शासक वर्ग और उसकी नीतियों की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि कोई शासक वर्ग किसी भाषा का समर्थन करता है तो वह उसके प्रचार-प्रसार के लिए विभिन्न उपायों को अपनाता है | उदाहरण स्वरुप किसी भाषा को राज्य की आधिकारिक भाषा बनाना, उस भाषा के विद्वानों और शिक्षण केन्द्रों को वित्तीय सहायता देना इत्यादि | इन प्रयासों से उस भाषा संवर्धन होता है । जन सामान्य के पास, राजकीय सेवाओं में नियुक्ति के लिए उस भाषा को सीखने का एक प्रमुख कारण होता है | विद्वान और पंडित, उस भाषा में रचनात्मक साहित्य और विचारों का प्रतिपादन भी करते हैं।
इन सबसे उस भाषा में नई शब्दावली का निर्माण होता रहता है। एक विशेष भाषा में ज्ञान सृजन, अन्य भाषीयों के लिए आकर्षण का कार्य करते हैं| वे भी उस भाषा को सीखने के लिए लालायित रहते हैं | वर्तमान से कई हजार वर्ष पूर्व संस्कृत को ऐसा ही राजकीय प्रश्रय उपलब्ध था। राजा रामचन्द्र से लेकर सातवी शताब्दी के शासक सम्राट हर्षवर्धन के समय तक यह एक राजकीय भाषा थी। राजकीय सेवाओं में नियुक्ति हेतु संस्कृत अध्ययन एक महत्वपूर्ण सम्मोहक कारक था।
संस्कृत अध्ययन के लिए राजकीय अनुदान भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था | यह विदेशी यात्रियों जैसे ह्वेनसांग और फाहियान के ऐतिहासिक वृत्तांतों से पढा जा सकता है। नालंदा और तक्षशिला में कोरिया और जापान से छात्र अध्ययन करने आते थे | इससे भारत की संस्कृति को सुदूर पूर्व में फैलने में सहायता मिली । इसी तरह व्यापार और वाणिज्य के माध्यम से, विश्व के अन्य भागों में संस्कृत का प्रचार-प्रसार हुआ।

भारतवर्ष में संस्कृत पर प्रथम आघात, इस्लामिक आक्रान्ताओ के द्वारा हुआ। नए शासकों ने फारसी के रूप में नवीन राजकीय भाषा की स्थापना की। यह संस्कृत से काफी भिन्न थी । इसने जन सामान्य के मानस में संस्कृत अध्ययन के उत्साह को कम कर दिया, क्योंकि अब राजकीय पद की प्राप्ति में संस्कृत सहायक नहीं रही | इतना होने पर भी संस्कृत जन मानस की भाषा बनी रहती, अगर भारतीय विश्वविद्यालयों पर इस्लामिक कुठाराघात नहीं हआ होता |
विश्विद्यालयों पर हुए इस्लामिक आक्रमणों ने संस्कृत अध्ययन के केन्द्रों को समाप्त कर दिया | नालंदा पर हुए कुठाराघात से बौद्ध संप्रदाय और संस्कृत शिक्षण केन्द्रों के पतन की प्रक्रिया ओर तेज हो गयी |
राजकीय संरक्षण और विश्वविद्यालयों के विनाश के साथ ही, संस्कृत में ज्ञान अभिवर्धन की श्रृखंला भी समाप्त हो गयी | इसके साथ ही, कई स्थानीय बोलियों के संयोग से, संस्कृत भाषा के कई अपभ्रंश उत्पन्न हुए | ये ही बाद में, विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं जैसे मराठी, डोगरी आदि में विकसित हुए।
संस्कृत के पतन का तीसरा प्रमुख कारण, इस्लाम की मूर्तिभंजक निति के तहत, सुनियोजित तरीके से किया गया मंदिरों का विध्वंस । मंदिर, ना केवल धर्म का स्रोत थे, अपितु विश्वविद्यालयों और पाठशालाऔं को वित्तिय सहायता भी प्रदान करते थे । वे कला और शोध के केन्द्र बिन्दु भी थे | इन धर्म स्थलों के कारण, भारत प्राचीन काल में विज्ञान और कला के चरम बिन्दु पर पंहुचा था | मंदिरों के विनाश के साथ ही संस्कृत ज्ञान और विद्या भी काल का ग्रास बन गई | दक्षिण भारत इस्लामिक हमले से अपेक्षाकृत अधिक सुरक्षित था | अत: संस्कृत का विकास वहां निर्बाध रुप से चलता रहा। आज भी, संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ विद्वान दक्षिण भारत में ही पाए जाते हैं |
ब्रिटिश साम्राज्य का दुष्प्रभाव :
मुगल साम्राज्य के पतन के बाद, ब्रिटिश भारत पर शासन करने लगे। ब्रिटिश शासन को संस्कृत अध्यापन और अध्ययन के उपर,अंतिम कुठाराघात के रुप में देखा जाना चहिए |
उस समय, क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षा के लिए कई प्राथमिक स्कूल थे [यहां पढें]। संस्कृत इन शिक्षा केंद्रों की संपर्क कड़ी थी । मैकाले की नीतियों को अपनाने के बाद, अंग्रेजी को शिक्षा की प्राथमिक भाषा के रूप में अपनाया गया। इसने संस्कृत और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के रसातल में जाने का मार्ग सुनिश्चित किया। भारत में प्राथमिक शिक्षा पूरी तरह से नष्ट हो गई। इसका प्रभाव संस्कृत भाषा पर पड़ा और यह केवल पुरोहित वर्ग तक ही सीमित होकर रह गई।
संस्कृत का निरन्तर पतन क्यों?
एक भाषा के संवर्धन के लिए पाँच शर्तें होती हैं:
1. उस भाषा में निरंतर साहित्यिक विकास हो रहा है ।
2. वह भाषा लगातार विभिन्न विधाओं में नए शब्द उत्पन्न कर रही है |
3. उस भाषा का इस्तेमाल आमतौर पर वाणिज्य, प्रशासन, न्यायलयों और सामान्य जन के द्वारा किया जा रहा है |
4. उस भाषा में महत्वपूर्ण वैज्ञानिक और तकनीकी कार्य चल रहे हैं।
5. वह भाषा, अन्य भाषाओं की महत्वपूर्ण कृतियों का अनुवाद अपनी भाषा में कर अपने साहित्य का वर्धन कर रही है |
इन पाँचों में, संस्कृत केवल पहली शर्त को ही पूरा कर पा रही है। संस्कृत में ना तो वैज्ञानिक शोध कार्य हो रहा है, ना ही यह वाणिज्य, और प्रशासन की भाषा है | ना ही जन सामान्य इसका प्रयोग दैनिक कार्यों के लिए कर रहे है, ना ही यह नूतन शब्दों को उत्पन्न कर रही है |
स्वतंत्र भारत की आत्मघाती नीतियां :
स्वतंत्र भारत में, ब्रिटिश सरकार की आत्मघाती नीतियां जारी रहीं। भारत सरकार ने मैकाले की अंग्रेजी प्रभुत्ववाद की आत्मघाती नीति को जारी रहा। हालाँकि सरकार ने संस्कृत भाषा के लिए धन और अनुदान देना शुरु किया था, किन्तु, लेकिन ये प्रयास आधे अधूरे मन से किए गए थे। ये ऊंट के मुंह में जीरे के समान साबित हुए | भारत सरकार की दोषपूर्ण नितियों के कारण से संस्कृत की स्वतंत्र भारत में दुर्गति हुई | ये कारण हैं :
- दोषपूर्ण शिक्षण पद्धति
किसी भी भाषा को सीखने का सही क्रम, श्रवण, वाचन, पाठन और लेखन है | संस्कृत भाषा के अध्ययन में भी यही क्रम लागू होना चहिए | किन्तु, मैकाले के मानसपुत्रों की कृपा के कारण यह क्रम उल्टा हो गया है | विद्यालयों में छात्र, सीधे पाठन और लेखन सीखते है | इसमें वाचन के लिए कहीं भी कोई भी स्थान नहीं है | परिणामतः 10 वर्षों के अध्ययन के पश्चात भी ,विद्यार्थी संस्कृत बोलने में स्वयं को अक्षम पाते है | बस यहीं से जन्म लेती है, संस्कृत के कलीष्ट होने की अवधारणा | यह अवधारणा जीवन पर्यन्त बेताल के भूत की तरह उस बालक का साथ नहीं छोडती | जिसका परिणाम संस्कृत अध्ययन में अरुचि के रुप में सामने आता है
- स्कृत में ज्ञान संवर्धन और वैश्विक वैज्ञानिक ज्ञान हस्तांतरण का अभाव:
आज संस्कृत में कोई भी नूतन वैज्ञानिक शोध कार्य उपलब्ध नहीं है। इसके विपरीत हमारे पास अंग्रेजी भाषा में सभी शोध कार्य उपलब्ध हैं। इसके कारण, संस्कृत में नूतन तकनीकी और प्रोद्योगिक शब्दावली का अभाव हो रहा है, वहीं अंग्रेजी, निरन्तर नवीन शब्दों से समृद्ध हो रही है | कई लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि संस्कृत में शब्द निर्माण की अपार क्षमता है, जो विश्व की किसी भी अन्य भाषा में नही है | यह सब कुछ पाणिनि व्याकरण के कारण संभव है | किन्तु नूतन वैज्ञानिक शोध के अभाव के कारण संस्कृत की इस शब्द निर्माण क्षमता का सम्पूर्ण उपयोग नहीं हो पा रहा है | नूतन शब्दावली का निर्माण, संस्कृत भाषा पुनरुद्धार के लिए अत्यंत आवश्यक है।
- सरकारी उदासीनता :
संस्कृत प्रोत्साहन को लेकर सरकारें बडे बडे दावे करती हैं | किन्तु इन दावों के मूल में जाने पर कुछ ओर ही सच्चाई सामने आती है | समस्त केन्द्रिय संस्कृत विश्वविद्यालयों का बजट एक भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान से कहीं कम है | यह संस्कृत को लेकर सरकार की “चलता है” मानसिकता को दर्शाता है | संस्कृत को लेकर के वित्तिय अनुदान भाजपा के आने के बाद से कई गुना बढ़ गया है। पर इसे ओर भी बढाए जाने की आवश्यकता है |
- वृत्ति का अभाव:
भारत में समस्त उच्च शिक्षा अंग्रेजी में ही उपलब्ध है | अभियांत्रिकी से लेकर चिकित्सा और व्यवसाय प्रबंधन, तक समस्त शिक्षा केवल अंग्रेजी में ही उपलब्ध है। न्याय पालिका से लेकर, सशस्त्र सेनाओं में भी अंग्रेजी का ही प्रभुत्व है | चूंकि संस्कृत सीखकर किसी प्रकार का कोई लाभ रोजगार प्राप्ति में नहीं मिलता, अतः जन सामान्य इसकी ओर आकर्षित नहीं हो पाता है । विवशता में, वे अंग्रेजी सीखने के लिए बाध्य होते है।
संस्कृत अध्ययन क्यों:
इस गूढ प्रश्न को प्रत्येक व्यक्ति पूछ रहा है । यह महत्वपूर्ण इसलिए भी है, क्योंकि जीवनवृत्ति के लिए अंग्रेजी संस्कृत से कहीं अधिक उपयोगी है। । किन्तु तेजी से बदलते हुए वैश्विक परिवेश में संस्कृत शिक्षा वास्तव में भारतीयों के लिए समृद्धता के नूतन द्वार खोल सकती है | संस्कृत अध्ययन विभिन्न कारणों से लाभदायक होगा:
- भारतीय संस्कृति और उसकी धरोहर को जानने के लिए:
संस्कृत भारतीय संस्कृति और ज्ञान की कुंजी है | हालांकि संस्कृत के अनुवादित ग्रंथ अंग्रेजी में उपलब्ध हैं, फिर भी अनुवाद के दौरान मूल अर्थ का कुछ ह्रास होता है। संस्कृत अध्ययन से भारतीय अपनी मूल परम्पराओं और ज्ञान को सीखने में सक्षम हो पाऐंगे | भारतीयों के लिए ज्ञान के नए द्वार खुलेंगे।
- भारतीय ज्ञान परम्पराओ पर अधिकार के लिए :
पाश्चात्य जगत में संस्कृत ग्रंथों पर निरन्तर शोध कार्य चल रहा है | शेल्डान पोलक, कुछ भारतीय सिपाहियों की सहायता से, इन ग्रंथों को तोड मरोड कर प्रस्तुत कर रहा है | यह सब कुछ भारतीयों की स्वयं की भाषा के प्रति अज्ञानता के कारण हो रहा है | संस्कृत में अधिकार से भारतीय अपनी ज्ञान परम्पराओं की रक्षा करने में सक्षम हो पाऐंगे |
- बौद्धिक संपदा की रक्षा के लिए:
पश्चिम में प्राचीन संस्क्रत ग्रंथों से ज्ञान चुराने और इसको पेटेंट कराने का प्रयास पिछले कई वर्षों से किया जा रहा है। उदाहरण के लिए नीम और हल्दी के पेटेंट को लें । आयुर्वेदिक पुस्तकें हल्दी के औषधीय लाभों से भरी पडी हैं। किन्तु हमारी उदासीनता के कारण, पश्चिम ने हमारी वैज्ञानिक विरासत पर दावा किया । संस्कृत के ज्ञान से इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति नही हो पाएगी |
सांस्कृतिक स्वतंत्रता और मानसिक उपनिवेशवाद से मुक्ति के लिए:
एक हजार वर्षों की पराधीनता के कारण भारतीय मस्तिष्क मानसिक उपनिवेशवाद से पीड़ित है। पश्चिम से प्रत्येक विषय का अनुमोदन लेना इस प्रवृत्ति का स्पष्ट द्योतक है | हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को तब तक नहीं पहचान पाते जब तक पश्चिम उस पर अपनी छाप नहीं लगा देता । योग और आयुर्वेद भारत में कई दशकों तक उपेक्षित रहे, किन्तु जैसी ही पश्चिम ने इसको अनुमोदित किया, भारत में भी इसका चलन बढ गया |
इसका कारण यह है कि हम एक विदेशी भाषा में ही स्वपन देखते हैं, उसी में भोजन करते हैं, उसी में ही चिन्तन, मनन, सब कुछ करते हैं | यही नहीं हमारा बस चले तो नवजात शिशुओं का रुदन भी अंग्रेजी में करवा दें | इन सब के पीछे यह कुतर्क दिया जाता है कि इससे भारत महाशक्ति बनेगा |
भारतीयों के लिए ज्ञान विज्ञान के नवीन मार्ग प्रशस्त होंगे | यह सब कुछ मैकाले के मानस पुत्रों द्वारा प्रचारित किया गया माया जाल है, जिसका वास्तविकता से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है | कृत्रिम प्रज्ञा, सूचना प्रबंधन के क्षेत्र में रुस, जापान, चीन, हंगरी, इत्यादि देश अग्रणी है[संक्रान्त सानू की पुस्तक] | ये सब देश अंग्रजी भाषी नहीं है |
संस्कृत और भारतीय भाषाओं की उपेक्षा के कारण ही हम केवल काँल सेन्टर वाले देश बन कर रह गए हैं | जब तक हम अपना आधिकारिक व्यवसाय अपनी भाषा में करना शुरू करेंगे, तभी हम अपनी संस्कृति और विरासत पर गर्व महसूस कर पाएंगे। तभी हम पश्चिम के देशों के समान खड़े हो सकते हैं। अन्यथा भारतीय युवा अमेरिका और यूरोप के लिए केवल सामान क्रय विक्रय करते हुए रह जाऐंगे |
- विज्ञान और प्रौद्योगिकी में वैश्विक शिरोमणि बनने के लिए:
हाल ही में चिकित्सा का नोबल पुरस्कार ऑटोफैगी पर शोध के लिए दिया गया है इस प्रक्रिया के अन्तर्गत शरीर स्वयं ही अपनी कैंसर कोशिकाओं को नष्ट कर देता है। विभिन्न आयुर्वेदिक ग्रंथों [अष्टांग ह्रदय, चरक संहिता] में इस अवधारणा की व्यापक रूप से चर्चा की गयी है। कुछ कुछ अन्तराल पर व्रत, उपवास से कैसर कोशिकाओं के नष्ट होने में सहायता मिलती है | इस प्रकार संस्कृत का ज्ञान भारत को स्वस्थ बनाने में सहायक सिद्ध होगा | इसी तरह मनोवैज्ञानिक और मस्तिष्क विज्ञान , वर्तमान में पाश्चात्य विश्व में शोध के प्रमुख क्षेत्र है | पतंजलि योग सूत्र ने गहन रुप से इन विषयों पर चर्चा की है | संस्कृत का अध्ययन भारत को इस क्षेत्र में अग्रणी बना सकता है |
संस्कृत को कैसे बढ़ावा दें:
संस्कृत को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्र के तीन प्रमुख स्तम्भों से दीर्घ प्रयासों की आवश्यकता है –
1. सरकार
2. संस्कृत विद्वान, शिक्षक
3. भारतीय समाज
विभिन्न स्तम्भों की भूमिका अलग-अलग है | उन्हें अपनी क्षमता के अनुसार विभिन्न उपाय अपनाने होंगे;
सरकार की भूमिका:
सरकार की भूमिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण है | सरकारी नीतियां ही भविष्य में यह सुनिश्चित करेंगी कि संस्कृत अध्ययन करने वालों के लिए जीवन वृत्ति के व्यापक साधन उपलब्ध हैं अथवा नहीं। सरकारें निम्नलिखित उपाय अपना सकती हैं:
- ऑल इंडिया रेडियो और दूरदर्शन के माध्यम से संस्कृत का प्रचार प्रसार:
आकाशवाणी और प्रसार भारती के माध्यम से संस्कृत समाचार और कार्यक्रमों का प्रसारण किया जा सकता है। वर्तमान में आकाशवाणी द्वारा दिन में दो बार पांच मिनट का संस्कृत समाचार प्रसारित किया जाता है। इसे दिन में दो बार 15 मिनट तक प्रसारित किया जाना चाहिए। इसी तरह दिन में दो बार आधे आधे घंटे के दो समाचार वार्ता को डीडी समाचार द्वारा प्रसारित किया जा सकता है। इससे संस्कृत में समाचार प्रसार बढ़ेगा। यह संस्कृत समाचार वाचकों को रोजगार भी प्रदान करेगा।
- डीडी उर्दू का डीडी भाषा में रुपान्तरण:
भारत सरकार हर वर्ष करोड़ों रुपये डीडी उर्दू पर व्यय करती है । इसे विशेष रूप से उर्दू पर व्यय करने के बजाय, संस्कृत पर व्यय क्यों नहीं किया जाना चहिए। यह सरलता से किया जा सकता है | डीडी उर्दू को डीडी भाषा में परिवर्तित कर, उसे शास्त्रीय भारतीय भाषाओं के प्रसारण का माध्यम बना देना चहिए| संस्कृत और अन्य भारतीय भाषाऐं इससे लाभान्वित होंगी | यह भारत की वैश्विक छवि को भी सुदृण करेगा और राष्ट्रीय एकीकरण में भी सहायक सिद्ध होगा।
- संस्कृत की घोषणा दूसरी राजभाषा के रूप में:
संस्कृत को दूसरी राजभाषा घोषित किया जाना चाहिए। किन्तु ऐसा करना संघ सरकार के लिए न तो संभव है और न ही राजनैतिक रुप से उचित । पर राज्य सरकारों द्वारा यह कार्य आसानी से किया जा सकता है, क्योकि वहां पर संस्कृत का विरोध राजनैतिक रुप से आत्मघाती हो सकता है । उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश ने संस्कृत को अपनी दूसरी आधिकारिक भाषा घोषित किया है। इस कदम को गुजरात, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा सरकारों द्वारा आसानी से दोहराया जा सकता है। यह एकमात्र कार्य एक तीर से कई निशाने लगा देगा |

सबसे पहले यह भाजपा की सांस्कृतिक साख को मजबूत करेगा। संस्कृत का प्रचार और संवर्धन, संघ परिवार की कार्यसूची में प्रमुख स्थान पर है | यह पार्टी के कार्यकर्ताओं को उत्साहित भी करेगा। यह हिन्दूत्ववादी मतदाताओं को भी उत्साहित करेगा। जैसा कि उपर्युक्त राज्यों में द्विध्रुवीय राजनीति है, इस कदम का विरोध करना विपक्षी दल के लिए भी कठिन होगा। भाजपा के इस कदम की सभी जगह भूरी भूरी प्रशंसा होगी।
दूसरा, यह सरकारी क्षेत्र में युवाओं के लिए जीवन वृत्ति के नवीन अवसर खोलेगा। विधानसभा अनुवादक, राजकीय विद्यालयों में शिक्षक और संस्कृत समाचार वाचकों को सेवा के अवसर प्राप्त होंगे । यह संस्कृत को जीवन वृत्ति, और वाणिज्य की भाषा बनाने में भी सहायक सिद्ध होगा ।
तीसरा, यह भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और संस्कृत भारती की विचारधारा के विस्तारण और प्रसारण में भी सहायता करेगा।
- भारतीय दूतावासों द्वारा संस्कृत विद्वानों की नियुक्ति:
अमेरिका, रूस, जापान, चीन, कोरिया, जर्मनी में स्थापित भारतीय दूतावासों को संस्कृत के विद्वानों की नियुक्ति करनी चाहिए। अंग्रेजी तथा अन्य प्रचलित भाषाओं के साथ-साथ, उन्हें वार्ता विज्ञप्ति संस्कृत भाषा में प्रकाशित करनी चहिए। इससे भारत की सांस्कृतिक साख बढ़ेगी और विदशी भी संस्कृत सीखने के लिए प्रेरित होंगे। यह भविष्य में भारत के लिए काफी लाभदायक सिद्ध हो सकता है।
संस्कृत में विदेशी पुस्तकों का अनुवाद:
चीन, प्राचीन काल से ही मैंडरिन में विदेशी ग्रंथों का अनुवाद कर रहा है। इससे यह सुनिश्चित हुआ कि समस्त वैश्विक ज्ञान उनकी अपनी भाषा में सुलभ था । वे किसी भी प्रकार की बौद्धिक चुनौती का प्रत्युत्तर दे सकते थे | भारत सरकार को भी संस्कृत में तकनीकी, प्रौद्योगिक, चिकित्सकीय ग्रंथों के अनुवाद करवाने चहिए | संस्कृत की लोकप्रियता को बढाने के लिए, जैसे की प्रख्यात वैज्ञानिक सुभाष काक द्वारा सुझाया गया है, विश्व की 100 प्रमुख कृतियों को संस्कृत में अनुवादित कर प्रसारित करना चहिए | यह छोटा सा प्रयास संस्कृत भाषा में विद्यार्थियों की रुचि को प्रज्वलित करेगा। यह आगे चलकर वे संस्कृत वाचन, मनन, पाठन के लिए प्रोत्साहित होंगे।
संस्कृत में आकर्षक पाठ्यक्रमों का प्रारंभ:
आज अभियांत्रिकी और चिकित्सकीय पाठ्यक्रमों में अध्ययन छात्रों में, अपनी संस्कति के प्रति जिज्ञासा का भाव है | वे प्राचीन भारतीय ग्रंथों का अध्ययन करना चाहते हैं | संस्कृत संवर्धन प्रतिष्ठान ने संस्कृत स्व-शिक्षा के लिए कई पाठ्यक्रम विकसित किए हैं। भारत सरकार, इसे एक कदम और आगे ले जा सकती है। संस्कृत में वैकल्पिक विषय IIT, NIT और AIIMS के छात्रों को, उनकी अभिरूचि के आधार पर प्रदान किए जा सकते है। जो लोग इस संयोजित चार वर्ष के पाठ्यक्रम को संतोषजनक रूप से पूरा करेंगे, उन्हें आयुर्वेद, दर्शनशास्त्र आदि में डिप्लोमा की उपाधि प्रदान की जा सकती है।
उदाहरण के लिए चाणक्य रचित अर्थशास्त्र को लीजिए | इसमें गुप्तचरी, सैन्य रचना, कर संग्रह, राष्ट्र रक्षा पर अद्भुत सूत्र दिए गए हैं | राष्ट्रीय रक्षा अकादमी, और पुलिस अकादमी में संस्कृत में रचित अर्थशास्त्र पर आधारित, इस तरह के पाठ्यक्रम का प्रारंभ किया जा सकता है। भारत के गत 1000 वर्षों का इतिहास उठाकर देखें, तो हमें इस प्रकार के पाठ्यक्रमों की अत्यंत आवश्यकता है | यह पुलिस और सैन्य अधिकारियों के कूटनीतिक और सैन्य कौशल के संवर्धन में भी सहायक सिद्ध होगा। इससे भी संस्कृत के प्रचार-प्रसार में सहायता मिलेगी।
- संस्कार में पुस्तकों का अनुवाद करने के लिए कृत्रिम प्रज्ञा का विकास:
भारत सरकार, को भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान की सहायता से विदेशी भाषाऔं में उपलब्ध पुस्तकों का संस्कृत में अनुवाद प्रारंभ करना चहिए | चीन मात्र 24 घंटों में किसी भी विदेशी पुस्तक का अनुवाद मैंडरिन में कर रहा है | यह भारत में भी संभव है, यदि भारत सरकार इसके लिए संसाधन उपलब्ध कराए | इससे संस्कृत में ज्ञान का प्रसार पुनः संभव हो पाएगा | भारतीय छात्र भी वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम हो पाएंगे |
संस्कृत विद्वानों और शिक्षकों की भूमिका:
संस्कृत शिक्षकों, का संस्कृत के पुनरुद्धार में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी। इसके लिए उन्हें निम्नलिखित कार्य करने होंगे:
- संस्कृत समाचार पत्र की सुलभ उपलब्धता:
आज संस्कृत दैनिक दुर्लभ है। सुधर्मा और विश्वस्य वृत्तान्तम्, दो ही प्रमुख संस्कृत दैनिक आज के समय में उपलब्ध हैं। हालाँकि उनके संपादकीय लेख हिंदी और अंग्रेजी दैनिकों के सामने नहीं टिकते हैं । संस्कृत भारती मासिक आधार पर संभाषण संदेश का प्रकाशन करती रहती है। इसने संस्कृत के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाहन किया | अब समय है संस्कृत मे एक वृहत दैनिक प्रकाशित करने का।
अगर दैनिक ना भी हो पाए तो भी एक विस्तृत साप्ताहिक तो अवश्य ही प्रकाशित होना चहिए | संस्कृत भारती को इस कार्य में पहल लेनी चहिए। इसे राष्ट्रीय, राजनीतिक, अंतर्राष्ट्रीय और आर्थिक घटनाओं के गहन विश्लेषण के साथ दैनिक या साप्ताहिक के रूप से प्रकाशित किया जा सकता है। यह संस्कृत में ज्ञान संवर्धन में सहायक सिद्ध होगा।
- संस्कृत में ज्ञान उत्पत्ति:
संस्कृत में वैश्विक साहित्य और ज्ञान को उपलब्ध कराने की आवश्यकता है | पिछले 200 वर्षों से संस्कृत से केवल ज्ञान का निर्गमन ही हो रहा था, आगमन नहीं | इस एक तरफा यातायात के अन्तर्गत, सभी संस्कृत ग्रंथों का यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद किया गया। संस्कृत रुपी महासागर से ज्ञान का प्रवाह अन्य भाषाओं में हुआ | किन्तु अन्य भाषाओं से संस्कृत में ज्ञान गंगा प्रवाहित नहीं हुई| इसका मुख्य दोष उन संस्कृत विद्वानों और शिक्षकों को जाता है, जिन्होंने अन्य भाषाओं को जानते हुए भी उनके प्रमुख ग्रंथों का अनुवाद संस्कृत में नहीं किया | अब इस प्रवृत्ति को बदलने का समय है।
संस्कार के प्रत्येक स्नातक छात्र को कम से कम एक विदेशी या भारतीय भाषा में रचित पुस्तक का संस्कृत भाषा में अनुवाद करना चाहिए। इसका आरंभ कथा सम्राट मुन्शी प्रेमचन्द की रचनाओं से हो सकता है | अगर संस्कृत में अध्ययनरत 1 लाख छात्र भी प्रति वर्ष इस कार्य को करते है, तो एक वर्ष में एक लाख पुस्तक संस्कृत में उपलब्ध हो जाएंगी | संस्कृत रुपी ज्ञान गंगा कुछ ही वर्षों में पुनः समृद्ध हो जाएगी |
- शिक्षण पद्धति में परिवर्तन:
संस्कृत भाषा अध्ययन की मैकाले प्रणाली को त्याग कर संवाद आधारित पद्धति को अपनाने की आवश्यकता है। भाषा अध्ययन मनोरंजक और संवादपूर्ण होना चहिए | भाषा अध्ययन के प्रथम चरण में, छात्रों को संस्कृत में बाल चलचित्र दिखाने चहिए। उन्हें क्रीडा के माध्यम से संस्कृत सिखायी जानी चहिए। जब वे संस्कृत सम्भाषण में कुशल हो जाए , तब ही अध्ययन के अगले सोपान, अर्थात पाठन और लेखन की तरफ कदम बढने चहिए। यह संस्कृत अध्ययन को सरल और रोचक बना देगा।
भारतीय समाज की भूमिका:
किसी भाषा के उत्थान और पतन में उस समाज की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। उदाहरण स्वरुप हम अंग्रेजी भाषा को लेते है। 15 वीं शताब्दी तक फ्रेंच भाषा ब्रिटेन के अभिजात्य वर्ग की आधिकारिक भाषा थी। अंग्रेजी सामान्य जन की भाषा थी। ब्रिटेन के सामान्य नागरिको ने अंग्रेजी को बढ़ावा देना अपना कर्तव्य समझा। उन्होंने इसे राष़्टीय सम्मान से जोड लिया | उन्होंने अंग्रेजी में अनुवाद, अध्ययन करना आरंभ कर दिया | [यहां पढ़िए] अंततोगत्वा, ब्रिटिश शासकों को पराजय स्वीकार करनी पड़ी | फ्रेंच भाषा को हटाकर अंग्रेजी को ब्रिटेन की आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाया गया। भारतीय समाज भी कुछ उपाय अपना सकता है
सबसे पहले, माता-पिता अपने बच्चों को संस्कृत सम्भाषण के लिए प्रेरित करें | संस्कृत भारती द्वारा आयोजित संस्कृत सम्भाषण में भाग लेकर, वे संस्कृत सीख सकते हैं। तत्पश्चात वे अपने घरों में संस्कृत में सम्भाषण करें। इस तरह के संस्कृत बोलने वाले घरों को एक आदर्श गृह के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिए, जो दूसरों को भी संस्कृत सीखने के लिए प्रोत्साहित करेगा।

दूसरी बात, समाज के प्रत्येक वर्ग को संस्कृत संवर्धन को अपना कर्तव्य बनाना होगा | चिकित्सक कुछ आधुनिक चिकित्सकीय पुस्तकों का संस्कृत में अनुवाद कर सकते हैं। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के प्राध्यापक संस्कृत अनुवाद के लिए कृत्रिम प्रज्ञा के तन्त्राश को विकसित करने में सहायता कर सकते हैं। भारतीय प्रबंध संस्थान के प्राध्यापक, भागवत गीता से प्रबंधन पाठ पढ़ा सकते थे। सैन्य अधिकारी अर्थशास्त्र से सैन्य रणनीति और कूटनीति विकसित कर सकते हैं, और वे इसे अपने पाठ्यक्रमों में पढ़ा सकते हैं। संस्कृत अध्ययन एक जन आंदोलन का रुप लेना चहिए | यह सरकार को भारतीय भाषाओं के विरुद्ध, भेदभाव की आत्मघाती नीति को बदलने के लिए बाध्य करेगा।
निष्कर्ष:
भाषा किसी राष्ट्र के उत्थान और पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक राष्ट्र जो अपनी भाषा से रहित है, वह जढ हो जाता है | उस राष्ट्र के नागरिक मानसिक औपनिवेशिकरण से ग्रसित हो जाते है। भारतीय आज एक दोराहे पर हैं। प्रत्येक भारतीय को राष्ट्र हित में कुछ बलिदान करने के लिए तैयार रहना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि जापान, चीन, अमेरिका ,जैसे राष्ट्रों की कम से कम एक पीढी ने बलिदान दिए है | तब जाकर वे आज इस स्तर पर पहुंचे हैं | भारतीयों को भी राष्ट्र हित में इन बलिदानों के लिए तत्पर रहना चहिए | कुछ लोग यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि क्या संस्कृत वास्तव में इस बलिदान के योग्य है? अवश्य, अगर 1.3 अरब लोग विदेशी भाषा न जानने के कारण से, होने वाले अपमान से भयमुक्त होकर, अपने सिर को गर्व के साथ उठा सकते हैं, तो यह बलिदान उचित है |
सार्थक लेख
धन्यवाद